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Wednesday 26 September 2012

यशवन्त कोठारी का व्यंग्य - लक्ष्‍मी बनाम गृहलक्ष्‍मी


yashwant kothari

दीपावली के दिनों में गृहलक्ष्‍मियों का महत्‍व बहुत ही अधिक बढ़ जाता है, क्‍योंकि वे अपने आपको लक्ष्‍मीजी की डुप्‍लीकेट मानती हैं। लक्ष्‍मी और गृहलक्ष्‍मी दोनों खुश हो तो दिवाली है, नहीं तो दिवाला है, और जीवन अमावस की रात है।
सोचा इस दीपावली पर गृहलक्ष्‍मी पर एक सर्वेक्षण कर लिया जाये क्‍योंकि अक्‍सर मेरी गृहलक्ष्‍मी अब मायके जाने की धमकी देने के बजाय हड़ताल पर जाने की धमकी देती है। क्‍या इस देश की गृहलक्ष्‍मियों को हड़ताल पर जाने का कोई मौलिक अधिकार है ? और यदि है तो यह अधिकार किसने, कब और क्‍यों दिया ?

लक्ष्‍मीजी तो पुरूष पुरातन की वधु है, उनका चंचला होना स्‍वाभाविक भी है और आवश्यक भी है। मगर सामान्‍य गृहलक्ष्‍मी हड़ताल की बात करें तो मन में संषय पैदा हो जाता है आखिर वे चाहती क्‍या हैं। अपनी गृहलक्ष्‍मी से पूछा तो वे भभक पड़ीं।
क्‍या आराम का अधिकार केवल पुरूषों की ही जागीर है। हम लोग आराम नहीं कर सकतीं। मैंने विनम्रता पूर्वक निवेदन किया।
आराम करना आपका जन्‍म सिद्ध अधिकार है, मगर दीपावली के शुभ मौके पर यह अशुभ विचार। वे फिर क्रोध से बोल पड़ीं।
तुम तो लक्ष्‍मी के वाहन के लायक भी नहीं हो। मगर फिर भी सुनों।
सारे साल हम काम करते हैं। अब अगर दीपावली पर दो दिन आराम करना चाह रहे हैं तो तुम्‍हारा क्‍या बिगड़ जायेगा। फिर हम कोई बोनस, डी.ए. तो मांग नहीं रहे हैं, केवल आराम की बात कर रहे हैं।
मगर देवीजी आराम तो हराम है।
तो बस इसे हराम की कमाई ही समझो और तुम जानते हो हलाल से हराम की कमाई का महत्‍व बहुत ज्‍यादा है।
वो तो ठीक है मगर काली लक्ष्‍मी रूठ गई तो सब गुड़ गोबर हो जायेगा।
अब काली रूठे या सफेद। हम तो भई चले हड़ताल करने।
यह कहकर देवीजी तो आराम करने चली गयीं। मैंने फिर एक अन्‍य गृहलक्ष्‍मी से आराम और हड़ताल पर विचार जाने।
वे पढ़ी लिखी थीं। सब्‍जी खरीद रही थीं। टमाटर पर कददू रख रही थीं और खील बताशों पर दीपक रख कर सुखी हो रहीं थी।
मेरा प्रश्न सुनकर पहले मुस्‍कराई, फिर अधराई और अन्‍त में कोयल की तरह कूक पड़ी।
भाई साहब। ईश्वर आपके मुंह में घी-शक्कर डाले नेकी और पूछ पूछ कर, अरे भाई यहां तो दफ्‍तर से छुट्‌टी तो घर में पिसों। घर से छूटो तो दफ्‍तर में फाईलों में सर खपाओ। दोनों से छूटों तो पति और बच्‍चों के मामले देखो। अगर कहीं दुनिया में नरक है तो वो औरतों के भाग्‍य में ही है, भाई साहब।
मैंने दिलासा देने की गरज से कहा-अगर आप कुछ दिनों के लिए हड़ताल पर चली जाएं तो।
भई वाह मजा आ गया क्‍या ओरिजिनिल आइडिया है। मगर एक बात बताओ भाई साहब।
ये भाई सहाब। भाई साहब। शब्‍द सुनते-सुनते मेरे कान पक गये थे सो मैं भाग खड़ा हुआ।
इस बार सोचा एक गृहलक्ष्‍मा से बात करें। सुनते ही वो तमक कर बोल पड़े। अमां यार तुम भी निरे मूर्ख हो। गृहलक्ष्‍मियां अगर काम नहीं करेगी तो हम सब खायेंगे क्‍या ? तुम पूरे देश के घरों की व्‍यवस्‍था बिगाड़ने का षडयंत्र कर रहे हो देखो मुझे लगता है तुम्‍हारे पीछे किसी विदेशी एजेन्‍सी का हाथ लगता है। देखो प्‍यारे चुपचाप घर जाओ, एक दीपक जलाओ और गृहलक्ष्‍मी के हाथ की बनी चाय पीकर सो जाओ।
लेकिन मुझे तो गृहलक्ष्‍मियों के जीवन के सर्वेक्षण का बुखार चढ़ा हुआ था। सो मैं उस गृहलक्ष्‍मा की नेक राय क्‍यों मानता। मैंने सर्वेक्षण करने वालों की तरह दो सेंटीमीटर मुस्‍कान चेहरे पर चिपकाई और सर्वेक्षण के अगले दौरे हेतु कुछ ऐसे लोगों को पकड़ा जो रोज गृहलक्ष्‍मियों को भुगतते हैं और आठ-आठ आंसू रोते हैं।
सबसे पहले मैंने शहर के मिनी बसों के कण्‍डक्‍टरों से पूछा-गृहलक्ष्‍मी के बारे में तुम्‍हारे क्‍या विचार हैं ?
जो गृहलक्ष्‍मी बिना हील-हुज्‍जत के पूरे पैसे दे देती है, वही गृहलक्ष्‍मी अच्‍छी है जो झिकझिक करती है, मैं उसे रास्‍ते में ही उतार देता हूं और तुम पैसे निकालो।
मैंने कण्‍डक्‍टर को पैसे दिये और उतर गया।
बस कण्‍डक्‍टर से अपमानित होकर जब मैं नीचे उतरा तो एक आलीशान भवन के सामने एक आदमी खड़ा था मैं समझ गया यह बिल्‍डिंग बैंक की होगी और यह आदमी हर्षद मेहता की श्रेणी का। मैंने विनम्रतापूर्वक पूछा।
गृहलक्ष्‍मी के बारे में आप क्‍या सोचते हैं ? वो धीरे से बोला।
अपनी गृहलक्ष्‍मी के अलावा सब गृहलक्ष्‍मियां अच्‍छी लगती हैं।
ये कहकर वो हो हो कर हंसने लगा मैं भी उसके साथ हंसने लगा फिर हम दोनों हंसने लगे। अब मैंने पूछा-
बैंक में जो गृहलक्ष्‍मियां आती है, उनके बारे में आप क्‍या सोचते है यदि वे हड़ताल कर दे तो ?
देखो दोस्‍त लॉकर खोल कर खुला छोड़ जाये वही गृहलक्ष्‍मी अच्‍छी होती है। और फिर यदि बैंको में हड़ताल हो तो देश के कामकाज का क्‍या होगा। वैसे गृहलक्ष्‍मी हड़ताल करे यह तो बात ठीक नहीं।
यह ज्ञान लेकर मैं घर आ गया।
इधर घर की गृहलक्ष्‍मी किराने वाले को महंगाई पर भाषण सुनाकर आई थी और देश, सरकार, दूकानदार आदि को कोस रही थी। सोचा दूकानदारों से भी गृहलक्ष्‍मियों के बारे में पूछना चाहिए। सभी दूकानदारों ने एक स्‍वर में कहा जो गृहलक्ष्‍मी बिना भाव ताव किये सामान खरीदकर ले जाती है, वही गृहलक्ष्‍मी श्रेष्‍ठ होती है। ऐसा व्‍यापार लक्ष्‍मी का कहना है।
लेकिन गृहलक्ष्‍मी सर्वेक्षण प्रकरण में जब तक हारी बीमारी नहीं हो तो सर्वेक्षण का मजा ही क्‍या सो एक वैद्यराज से पूछा।
रोगी गृहलक्ष्‍मियों से आप कैसे निपटते हैं ?
बस जरा-सी सहानुभूति, कुछ आत्‍मीयता और फिर वे खुलकर सास, ननद, जेठानी, देवरानी के किस्‍से सुनाने लग जाती हैं।
अच्‍छा फिर उनके रोग का क्‍या होता है ?
रोग केवल मन की भड़ास निकालने का होता है। भड़ास निकली और सब कुछ ठीक हो जाता है। फीस मिलती है सो अलग।
यदि गृहलक्ष्‍मी हड़ताल कर दे तो ?
वैद्यजी यह सुनकर बेहोश हो गये। वैद्यजी को छोड़कर एक रिक्शे वाले से पूछा।
प्‍यारे भाई गृहलक्ष्‍मी के बारे में क्‍या सोचते हो वो छूटते ही बोला।
चौपड़ से चौपड़ तक 2 रूपये लगेंगे काहे की लक्ष्‍मी और काहे की गृहलक्ष्‍मी चलना है तो चलो नहीं तो अपना रास्‍ता नापो। रिक्शावाले से बचते बचाते गृहलक्ष्‍मियों की चिंता करते सोचा किसी विधुर से भी राय कर लूं। एक विधुर मिला बोला।,
ईश्‍वर बचाये गृहलक्ष्‍मी से। बड़ी मुश्किल से जान छूटी है। मेरी गृहलक्ष्‍मी तो स्‍थायी हड़ताल पर है। तुम अपनी खैर मनाओ और चाहो तो मेरी बिरादरी में शामिल हो जाओ। मगर मेरे ऐसे भाग्‍य कहां।
लगे हाथ एक कुंवारे से भी पूछा बैठा। भाई गृहलक्ष्‍मी के बारे में आप क्‍या सोचते हो।
लड़का नयी उमर का था मसें भीग रहीं थीं, मूंछे निकल रही थीं बोल पड़ा।
गृहलक्ष्‍मी में क्‍या रखा है अंकल ! कोई लक्ष्‍मी पुत्री हो तो बताओ मैं समझ गया यहां से बचो।
लेकिन अभी मेरा काम बाकी था सोचा भारतीय संस्‍कृति में गृहलक्ष्‍मी को ढूंढूं मगर वहां तो सब गृहलक्ष्‍मियां लक्ष्‍मीजी की आरती में व्‍यस्‍त थीं। हड़ताल पर जाने की धमकी देने वाली गृहलक्ष्‍मी भी लक्ष्‍मीजी की पूजा अर्चना कर रही थी।
सब सोच मैंने भी गृहलक्ष्‍मी की शरणम्‌ गच्‍छामि होना ही उचित समझा। सो हे पाठक ! इस लक्ष्‍मी पूजन पर अपनी गृहलक्ष्‍मी को भी सम्‍मान दें और सुखी रहें।
शास्‍त्रों में लक्ष्‍मी का बड़ा महत्‍व है, और जीवन में गृहलक्ष्‍मी का। इन दो पाटन के बीच में साबुत बचा न कोय। वैसे लक्ष्‍मी को श्री, पदमा, कमला, नारायणी, तेजोमयी, देवी आदि अनेकों नामों से जाना गया है। और कालान्‍तर में ये सभी नाम गृहलक्ष्‍मियों को सुशोभित करने लगे।
शास्‍त्रों के अनुसार लक्ष्‍मीजी क्षीरसागर नरेश विष्‍णुजी की पत्‍नी है और एक वरिष्‍ठ कवि के अनुसार पुरूष पुरातन की वधु क्‍यों न चंचला होय। मगर यह उक्‍ति गृहलक्ष्‍मियों पर ठीक नहीं उतरती क्‍योंकि भारतीय परिवेष में गृहलक्ष्‍मी डोली में बैठ कर आती है और अर्थी पर जाती है।
वैसे लक्ष्‍मी के कई प्रकार बताये गये हैं। धनलक्ष्‍मी, शस्‍यलक्ष्‍मी, कागजलक्ष्‍मी, कालीलक्ष्‍मी, सफेदलक्ष्‍मी, राजलक्ष्‍मी, राष्‍ट्रलक्ष्‍मी, लाटरीलक्ष्‍मी, सतालक्ष्‍मी, यशलक्ष्‍मी, सट्‌टालक्ष्‍मी, शेयरलक्ष्‍मी, प्रवासी अन्‍नपूर्णालक्ष्‍मी और न जाने कितने प्रकार की लक्ष्‍मी।
वैसे क्‍या कभी आपने लक्ष्‍मीजी के चित्र को ध्‍यान से देखा है। बचपन में जब छोटा था तो मैं लक्ष्‍मी पूजा का बड़ी बेताबी से इंतजार करता था क्‍योंकि पूजन के बाद ही मिठाई मिलती थी तथा पटाखे छोड़ने की इजाजत थी। लक्ष्‍मीजी को मैंने सदैव कमल पर बिराजे हुए ही देखा है, मगर किसी भी गृहलक्ष्‍मी को कमल पर बैठते नहीं देखा, शायद इसका कारण कमल का नरमा नाजुक होना है मगर किसी भी गृहलक्ष्‍मी को आप उल्‍लू नहीं पायेंगे हां वे पति रूपि गृहलक्ष्‍मा को अवश्य उल्‍लू बनाती रहती
हैं।
कल्‍पना कीजिए लक्ष्‍मी और गृहलक्ष्‍मी दोनों साथ-साथ अवतरित हो जायें तो क्‍या हो ? मेरे ख्‍याल से यदि किसी के जीवन में ऐसा हो जाये तो शायद उसका पूरा जीवन अमावस्‍या की रात बन जाये। आज की लक्ष्‍मी गृहलक्ष्‍मी विष्‍णु अनुगामिनी नहीं है वो तो स्‍वयं आगे बढ़कर विष्‍णु की समस्‍याओं को हल करने में सहयोग देने वाली लक्ष्‍मी बन जाना चाहती है।
आज की लक्ष्‍मी तो बस मत पूछिये। मेघवर्णा सुमध्‍यमें, कामिनी, कामोदरी, सुकेशी, सुकान्‍ता, सरस और फैशन की मारी है। वो तो कभी पद्‌मिनी, कभी हस्‍तिनी, कभी संखिनी है तो कभी गजगामिनी गजलक्ष्‍मी। मत पूछिये कभी दुर्गा है तो कभी कोमल शीतल। गृहलक्ष्‍मी का कमल कोमल नहीं है और गृहलक्ष्‍मी स्‍वयं भी घर के अर्थशास्त्र पर अपना ही हक समझती है। वैसे भी पतियों को उल्‍लू समझने, उल्‍लू बनाने में गृहलक्ष्‍मियों का जवाब नहीं।
सामान्‍य गृहलक्ष्‍मी पति को पीर, बावर्ची, भिश्ती और खर समझती है। वे पति को गृहलक्ष्‍मा नहीं समझकर एक घरेलू नौकर भी समझे तो क्‍या आश्चर्य। वैसे भी शादी के बाद पति केवल गृहलक्ष्‍मी के द्वारा की गयी खरीददारी के डिब्‍बे उठाने का ही काम करता है।
कभी -कभी कोई गृहलक्ष्‍मी अपने पतिदेव को विष्‍णु समझकर उनके पांव क्षीर सागर में शयन करने के वक्‍त दबा देती होगी। गृहलक्ष्‍मी की सर्वप्रिय वस्‍तु होती है पति की कमाई या मासिक वेतन। समझदार गृहलक्ष्‍मी वेतन डी.ए. बोनस, सब का ध्‍यान रखती है पति के पूरे वेतन को पहले सप्‍ताह में ही खर्च करने की हिम्‍मत रखती है और बेचारा पति फिर किसी काली लक्ष्‍मी की तलाश में दौड़ने लगता है वैसे सोतिया डाह की दृष्‍टि से देखें तो एक ही घर में दो महिलाएं एक लक्ष्‍मी और दूसरी गृहलक्ष्‍मी। मगर साहब, कोई एक तो गृहलक्ष्‍मी ढूंढ लाइये जो सहोदरियों में भी दुर्लभ है।
परिचर्चाकारों को लक्ष्‍मी और गृहलक्ष्‍मी दोनों खड़े काके लागूं पाय नुमा परिचर्चाओं का आयोजन करना चाहिए। दूरदर्शन आकाशवाणी को लक्ष्‍मी और गृहलक्ष्‍मी पर कार्यक्रम करने चाहिए। अखबारों को इन सौतनों पर लेख और परिशिष्ट निकालने चाहिए। आखिर ये दोनों तो वास्‍तव में आधुनिक युग रूपी गाड़ी के दो पहिये हैं।
एक लक्ष्‍मी को लाती है दूसरी खुले दिल से इसे खर्च कर अपना जीवन सफल, सुखी और आनन्‍दमयी करती है। लक्ष्‍मी की पूजा तो एक दिन की उसके नाज, नखरे उसकी पूजा एक दिन की मगर गृहलक्ष्‍मी की सेवा तो बस चलती ही रहती है जो लक्ष्‍मी से बचे वे गृहलक्ष्‍मी में उलझे, जो गृहलक्ष्‍मी से बचे वे लक्ष्‍मी में उलझे क्‍योंकि लक्ष्‍मी के बिना सब सूना-सूना है बिना गृहलक्ष्‍मी के घर भूतों का डेरा है।
रहिमन लक्ष्‍मी राखिये।
बिन लक्ष्‍मी सब सून।
गृहलक्ष्‍मी गये न उबरे
मोती मानस चून ॥
तो इस दीपावली पर लक्ष्‍मी और गृहलक्ष्‍मी दोनों की अर्चना कर अपना इहलोक और परलोक दानों सुधारिये। इति शुभम्‌।
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यशवन्त कोठारी
86, लक्ष्‍मीनगर ब्रह्मपुरी बाहर
जयपुर 302002, फोन 2670596


आगे पढ़ें: रचनाकार: यशवन्त कोठारी का व्यंग्य - लक्ष्‍मी बनाम गृहलक्ष्‍मी http://www.rachanakar.org/2010/10/blog-post_29.html#ixzz27aBOT0kH
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